इस बार मुलाकात हिंदी सिनेमा की जानी-मानी अभिनेत्री से जो अपने आलोचनात्मक और मजबूत महिला किरदारों के लिए जानी जाती हैं
Talking to Shabana Azmi.
सैय्यदा शबाना आजमी न सिर्फ फिल्मों में अपने किरदारों से समाज सुधार का संदेश देती रही हैं, बल्कि असल जिदंगी में भी सामाजिक मुद्दों पर उन्होंने काम किया है। उनकी मां शौकत कैफी ने अपनी आत्मकथा में इस बारे में लिखा है। शौकत खुद भी एक थियेटर आर्टिस्ट रहीं और कुछ हिंदी फिल्में भी कीं। आत्मकथा में उन्होंने लिखा िक उनकी बेटी शबाना कमजोरों और जरूरतमंदों के प्रति हमेशा संवेदशील रहीं। जब वे फिल्मों में सफल हो चुकी थीं तब मुंबई की एक कच्ची बस्ती के लोगों के अधिकारों के लिए भूख हड़ताल पर बैठ गईं। शौकत ने लिखा कि शबाना की हालत देखकर उनका कलेजा मुंह को आ गया, पर वे डटी रहीं।
Shabana Azmi |
फिल्मी कलाकारों की ऐसी सामाजिक सक्रियता हमेशा
प्रासंगिक बनी रहती है। आज के दौर में और भी ज्यादा, जब नए और सीनियर फिल्म
स्टार्स समाज की जमीनी हकीकतों से पूरी तरह दूर हो चुके हैं। शबाना में
सोशल एक्टिविज्म अपने पिता कैफी आजमी से आया। कैफी लेखक थे। खासकर शायरी और
कविताएं लिखते थे। यादगार फिल्म संवाद-गीत लिखे। भारतीय साहित्य में उनका
अच्छा स्थान है। वे समाजसेवी थे और कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे। शबाना
का आंशिक झुकाव भी लेफ्ट की तरफ रहा। उनका जन्म सितंबर, 1950 में हैदराबाद
में हुआ। मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज से उन्होंने साइकोलॉजी की पढ़ाई की।
फिर पुणे के फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान से उन्होंने एक्टिंग का कोर्स
किया। उनका अभिनय जीवन बेहद सफल रहा है। सार्थक और मुख्यधारा, दोनों किस्म
की फिल्मों में उन्होंने बराबर काम किया है। उन्हें 1983 से 1985 के बीच
सर्वश्रेष्ठ अभिनय के लिए तीन बार नेशनल फिल्म अवॉर्ड िमले हैं।
शनिवार को शबाना जयपुर किसी कार्यक्रम में हिस्सा लेने
पहुंचीं थीं। यहां उन्हें बैटल ऑफ द सेक्सेज़ विषय पर बोलना था। वे अच्छी
वक्ता हैं, मगर उनकी बेबाकी मुझे खासी पसंद है। मसलन, एक बार उन्हें एक
सरकारी फिल्म फेस्टिवल में चीफ गेस्ट बनाया गया। उन्हें बोलने के लिए माइक
दिया गया तो बोलीं, "सरकार हिंदी सिनेमा की ओर ध्यान नहीं दे रही है। इस पर
वहां बैठे तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री सकपका गए। बताया जाता है कि
बाद में शबाना की फिल्मों को इसी बेबाकी की वजह से मुश्किलों से गुजरना
पड़ा। हालांकि इसका उन पर कोई असर नहीं हुआ और वे यूं ही बोलती रहीं।
खैर, इस कार्यक्रम के दौरान उनसे मिलना हुआ। मेरा मुख्य सवाल उसी विषय
पर रहा जिस पर वे बोलने आईं थीं और ज्यादातर जीवन में बोलती रही हैं।
लिंग-भेद। या बैटल ऑफ सेक्सेज़। क्या उन्हें अपने जीवन में जेंडर से जुड़े
भेदभाव का सामना करना पड़ा? इस पर उनका जवाब था, नहीं। शबाना ने बताया,
"बचपन में मैं नाराज होकर जरूर मां पर इल्जाम लगा देती थी कि वो मुझसे
ज्यादा भाई (बाबा आजमी, िसनेमैटोग्राफर) को प्यार करती हैं। जबकि ऐसा नहीं
था। मां हम दोनों को बराबर प्यार करती थीं।’
ये तो हुई घर की बात लेिकन घर के बाहर वे औरतों और
मर्दों में होने वाली गैर-बराबरी को देखती हैं। उन्होंने एक इंटरनेशनल
फिल्म फेस्टिवल के दौरान घटा वाकया बताया। वहां महिला जजों में वे अकेली
थीं। शबाना बताती हैं, "दरअसल ज्यूरी में शामिल एक पुरुष जज ने बाकियों से
कहा कि एक महिला है जिसे जज बना लेते हैं। वो मेरे पास आए और बोले, आप इतनी
सुंदर हैं। हम चाहते हैं कि आप जज बन जाएं। मैंने कहा, ठीक है। फिर जब
अवॉर्ड के लिए फिल्मों को चुनने की बारी आई तो मैं अपनी राय देने लगी। इतने
में सब मेरी ओर हैरत से देखने लगे। उनकी आंखेंं बोल रही थीं कि आप बताएंगी
हमें क्या करना है? फिर उनमें से एक ने कहा कि मैम आप बस जज हैं, तय हमें
करने दें कि कौन सी फिल्म को अवॉर्ड देना है। तब मैंने सोचा कि ये कैसा
अिधकार जिसमें निर्णय नहीं ले सकते। और देखिए ये सोच पूरी दुनिया में है।
मैंने देखा है कि महिलाओं को इस सोच का सामना कदम-कदम पर करना पड़ता है।’
शबाना ने महिला केंद्रित किरदारों वाली और समाज की
जड़वत सोच को चुनौती देने वाली कई फिल्में की हैं। उन फिल्मों की कोशिश ये
रही कि एक विरोध का स्वर जताया जा सके। मसलन, उनकी फिल्म "फायर’। बहुत
बोल्ड विषय (समलैंगिक संबंध) पर बनी इस फिल्म ने कई त्यौरियां चढ़ाई थी। इसे
बैन भी किया गया। उनसे मेरा एक जरूरी सवाल ये था कि आखिर जिस सोच की वे
बात कर रही हैं, उसमें बदलाव कैसे आएगा? जिस महिला सशक्तिकरण के लिए
सरकारें योजनाएं जारी कर रही हैं, कई मंचों पर कोशिशें हो रही हैं, वो कैसे
आएगा? इस पर उन्होंने कहा, "मैं हाल ही में तीसरी कक्षा की एक किताब देख
रही थी। उसमें सवाल था, मां कहां है? जवाब था, रसोई में। एक और सवाल था,
पापा कहां हैं? जवाब था, दफ्तर में। आपके सवाल का उत्तर इसी में है। मैंने
टीचर से कहा कि आदम के जमाने से चले आ रहे इस सवाल का जवाब आज भी ये है कि
मां रसोई में और पिता दफ्तर में। बच्चे का दिमाग खाली और कोरा होता है। जो
बचपन में सिखा देंेेगे, वो वही सीख लेगा। उसके जेहन में तो बचपन से ये बात
तथ्य की तरह घुसा दी गई है कि मां की जगह रसोई घर में ही है। तो इसे बंद
करना होगा। ये भूमिकाएं जो हैं, इनकी ऐसी पहचान मिटानी होगी। महिला
सशक्तिकरण के लिए एक बहुत जरूरी चीज है कि महिलाओं को देवी का दर्जा देना
बंद करें। उसे सिर्फ समानता का अधिकार दे दें। उसे देवी बनाकर पुरुष अपनी
जिम्मेदारी से बच जाते हैं। देवी बनाना आसान है, लेकिन समानता का अधिकार
देकर खुद के बराबर रख पाना मुश्किल।’
सभ्य समाज शबाना आजमी के लिहाज से वो है जहां महिला के
काम को पुरुष के बराबर महत्व मिले। उसके निर्णय को भी महत्व दिया जाए।
हमें अपनी वो पुरानी सोच बदलनी होगी िक बेटियां पराया धन होती हैं। महिला
खुद तय करे कि उसे किस काम में खुशी मिलती है। हाउसवाइफ बनकर घर को संभालना
अच्छा लगता है या वर्किंग वुमन बनाना? क्या पुरुष अपनी बीवी को ये नहीं कह
सकता कि मैं घर संभालता हूं और तुम कमाने जाओ। उन्होंने बताया, "एक बार
चेतन भगत ने मुझसे शेयर किया। उन्होंने अपनी बीवी से कहा कि तुम कमाने जाओ
और मैं घर संभालता हूं, तो लोगों ने उन्हें हैरत से देखना शुरू किया कि
अरे, ये तो हाउस हस्बैंड है। क्यों भई, जब महिला हाउसवाइफ हो सकती है तो
पुरुष क्यों नहीं?’ उनकी इस बात से बहुत से लोग ये सवाल कर सकते हैं कि ऐसे
में क्या हाउसवाइफ बनना महिला सशक्तिकरण के बीच बाधा है? उस पर शबाना ने
कहा कि उनके कहने का मतलब ऐसा नहीं है। उन्होंने कहा, "मैं ये कहना चाहती
हूं कि महिलाओं के काम की वैल्यू हो। आप को पता है, जब कोई महिला काम करती
तो उसके काम को मुख्य नहीं, सहायक माना जाता है। अच्छा घर में बैठी है तो
ठीक है काम कर रही है... ये ही रवैया होता है। वो हमेशा हिंसा की शिकार
होती है। एक बहन के रूप में, एक मां के रूप में और एक बीवी के रूप में।’
जाहिर है अंदरूनी भारत में कस्बाई और छोटे शहरों की
महिलाओं-युवतियों के लिए शबाना की बातों को पूरे संदर्भ के साथ समझ पाना
आसान नहीं है, लेकिन कोशिश करने की शुरुआत की जा सकती है। जरूरी नहीं कि
उन्होंने जो कहा उसे हूबहू समझें। अपने हिसाब से सशक्तिकरण के मायने ढूंढ़
सकती हैं। जहां भी गैर-बराबरी महसूस हो, विरोध जता सकती हैं। सबसे जरूरी है
अपने फैसले खुद ले पाना। चाहे शुरुआती तौर पर वो उतना सही न हो, पर आपका
अपना हो। मुझे लगता है विकास बहल द्वारा निर्देशित हालिया फिल्म "क्वीन’ इस
लिहाज से बेहतरीन उदाहरण है। उसमें कंगना का किरदार उसी जर्नी से गुजरता
है जिससे देश की ज्यादातर महिलाओं को गुजरना बाकी है। लेकिन अंत में सुकून
और सशक्त होने का भाव आएगा।
-:- thanks -:-.
बेहतरीन लेख। शब्दों के प्रवाह और चयन ने इसे ओर ज्यादा ताकतवर बना दिया है। महिला मुद्दों, समानांतर सिनेमा और साहित्य की समझ इसमें साफ झलकती है।
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